• मोदी सरकार में बेरोजगारी के भयावह आंकड़े

    अर्थव्यवस्था के अनुपात मेें रोजगार के अवसरोंं का नहीं बढ़ना लंबे समय से चिंता का विषय है। प्रधानमंत्री मोदी ने प्रति वर्ष 2 करोड़ नौकरियां देने का भरोसा दिया था,लेकिन पिछले 10 वर्षों में नई नौकरियों का सृजन तो दूर,जो पहले से रोजगार में थे, वे भी बेरोजगार हो गए।

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    — राहुल लाल
    बेरोजगारी बढ़ने के साथ श्रम भागीदारी दर का नीचे आना समस्या को बेहद जटिल बना देता है। यह दर श्रम शक्ति अर्थात अर्थात 15-64 साल की आयु के लोगों कुल संख्या में काम करने के इच्छुक लोगों तथा रोजगार में लगे या रोजगार पाने की कोशिश कर रहे लोगों की संख्या के अनुपात को इंगित करती है। इसका मतलब यह है कि घटते अवसरों की वजह से निराश लोग रोजगार की ओर उन्मुख नहीं हैं।

    अर्थव्यवस्था के अनुपात मेें रोजगार के अवसरोंं का नहीं बढ़ना लंबे समय से चिंता का विषय है। प्रधानमंत्री मोदी ने प्रति वर्ष 2 करोड़ नौकरियां देने का भरोसा दिया था,लेकिन पिछले 10 वर्षों में नई नौकरियों का सृजन तो दूर,जो पहले से रोजगार में थे, वे भी बेरोजगार हो गए। नवंबर 2016 में नोटबंदी लागू करते हुए आतंकवाद, भ्रष्टाचार और कालाधन का देश में खात्मा करने का दावा किया गया था। लेकिन अजीज प्रेमजी यूनिवर्सिटी बंगलुरु के सेंटर फॉर ससटेनेबल इम्प्लॉयमेंट(सीएसई) की रिपोर्ट में एक चौंकाने वाली बात सामने आई है। इस रिपोर्ट के अनुसार नोटबंदी के बाद 50 लाख लोगों की नौकरियां छिन गई है। सीएसई के रिपोर्ट 'स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया-' के अनुसार न केवल नोटबंदी के बाद करोड़ों लोगों के बेरोजगार होने की बात कही गई है, अपितु यह भी कहा गया है कि पिछले एक दशक के दौरान देश में बेरोजगारी की दर में लगातार इजाफा हुआ है। 2016 के बाद यह अपने शीर्ष स्तर पर पहुंच गया है। रिपोर्ट के अनुसार 20 से 24 वर्ष के लोगों पर इसका सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा है। अमित बसोले के नेतृत्व में तैयार किए गए इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 'सरकार ने राष्ट्रीय नमूना सर्वे कार्यालय (एनएसएसओ) द्वारा श्रम बल सर्वे (पीएलएफएस) की रपट अभी जारी नहीं की है। इसलिए इस रिपोर्ट में रोजगार स्थिति को समझने के लिए सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इडियन इकॉनामी के सीएमआईई-सीपीडीएक्स के आंकड़ों का प्रयोग हुआ है। पीएलएफएस और सीएमआईई-सीपीडीएक्स दोनों की रिपोर्ट में बेरोजगारी दर को करीब 8 फीसदी आंका गया है। यह 2000 से 2011 की औसत दर का दोगुना से अधिक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि उच्च शिक्षित वर्ग में बेरोजगारी तो बढ़ी ही है,कम शिक्षित श्रमिक जो प्राय: असंगठित क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं,उनके भी रोजगार के अवसर घटे हैं।


    आर्थिक परिदृश्य पर नजर रखने वाली भरोसेमंद संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनामी की रिपोर्ट के अनुसार, अक्टूबर 2023 में बेरोजगारी दर मई 2021 के बाद सबसे अधिक 10.05 फीसदी हो गई। इस दौरान ग्रामीण बेरोजगारी 6.2 प्रतिशत से बढ़कर 10.82 फीसदी हो गई,जबकि शहरी बेरोजगारी 8.44 फीसदी हो गई।
    बेरोजगारी बढ़ने के साथ श्रम भागीदारी दर का नीचे आना समस्या को बेहद जटिल बना देता है। यह दर श्रम शक्ति अर्थात अर्थात 15-64 साल की आयु के लोगों कुल संख्या में काम करने के इच्छुक लोगों तथा रोजगार में लगे या रोजगार पाने की कोशिश कर रहे लोगों की संख्या के अनुपात को इंगित करती है। इसका मतलब यह है कि घटते अवसरों की वजह से निराश लोग रोजगार की ओर उन्मुख नहीं हैं। नवंबर 2017 से ही रोजगार में गिरावट आती जा रही है। सबसे चिंताजनक मामला यह है कि रोजगार में गिरावट तब जारी है, जब लेबर फोर्स बढ़ती जा रही है। लेबर फोर्स बढ़ने से आशय है कि काम के लिए ज्यादा लोगों की उपलब्धता होते जाना। नोटबंदी के बाद लेबर फोर्स सिकुड़ गया था। लोगों को काम मिलने की उम्मीद नहीं रही थी,इसलिए वे लेबर मार्केट से चले गए थे।


    इसी सप्ताह एयर इंडिया में 180 कर्मचारियों को नौकरी से निकाला गया है। स्पाइसजेट 15 फीसदी कर्मचारियों की छंटनी करने वाला है। वर्ष 2019 में स्पाइसजेट के पास 16,000 कर्मचारियों का समूह था, लेकिन भयावह छंटनी के बाद अब कर्मचारियों की संख्या केवल 9 हजार रह गई, जिसमें पुन: 15 फीसदी छंटनी होने वाली है। कुछ वर्ष पूर्व जेट एयरवेज के बंद हो जाने से करीब 16000 कंपनी के पे-रॉल कर्मचारी और 6,000 अनुबंध वाले कर्मचारी बेरोजगार हो थे। रोजगार को लेकर कुछ और भी आंकड़े हैं,जो और भी डरावने हैं।


    वेदांता ने 49,141 लोगों की छंटनी की,तो फ्यूचर एंटरप्राइज ने 10,539 लोगों की। वहीं स्वास्थ्य क्षेत्र की सुप्रसिद्ध कंपनी फोर्टिस हेल्थकेयर ने 18,000 लोगों की छंटनी की। टेक महेंद्रा ने 10,470 कर्मचारी कम किए हैं। सेल सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी है,इसने 30,413 लोगों की छंटनी की है,तो बीएसएनएल ने 12,765 लोगों को काम से निकाला। इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन ने भी 11,924 लोगों की छंटनी की। इस तरह केवल तीन सरकारी कंपनियों ने करीब 55,000 नौकरियां कम की हैं। सरकार अपने लाभांश वाली कंपनियों में रोजगार सृजन के स्थान पर विनिवेश करने के लिए ही गंभीर रही।


    सीएमआईई नामक संस्था लगातार रोजगार के आंकड़ों पर नजर रखती है। इस संस्था के अनुसार 2013-14 में 1443 कंपनियों ने 67 लाख रोजगार देने का आंकड़े दिए, जबकि 2016-17 में 3,441 कंपनियों ने 84 लाख रोजगार देने का डेटा दिया है। इस हिसाब से देखें तो कंपनियों की संख्या में दुगुनी से भी ज्यादा वृद्धि के बावजूद रोजगार के आंकड़ों में खास वृद्धि नहीं दिखती है। इस तरह सरकार के कार्यकाल के प्रारंभ में भी 2 करोड़ प्रति वर्ष रोजगार सृजन को लेकर गंभीर नहीं रही।
    लघु एवं मध्यम उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था में रोजगार की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। नोटबंदी व लॉकडाउन ने लघु एवं मध्यम उद्योगों की कमर तोड़ दी। आरबीआई के अनुसार लघु व मध्यम उद्योग भयावह कर्ज में डूब गई। केवल नोटबंदी के असर से मार्च 2017 तक लोन न चुकाने का मार्जिन 8,249 करोड़ था, जो मार्च 2018 तक बढ़कर 16,111 करोड़ हो गया।


    माना जा रहा है कि नोटबंदी एवंं जीएसटी से ही केवल करीब 2 करोड़ से ज्यादा लोग बेरोजगार हुए है। ऑल इंडिया मेन्युफेक्चरिंग आर्गेनाइजेशन के अनुसार जीएसटी से केवल लघु एवं मध्यम उद्योगों में 35 लाख लोग बेरोजगार हुए हैं,जबकि इसमें असंगठित क्षेत्र के बेरोजगार लोगों को जोड़ दिया जाए तो आंकड़ा 2 करोड़ पहुंच सकती है।
    अर्थव्यवस्था को गतिमान बनाने के लिए आवश्यक है कि हमारी अर्थव्यवस्था निर्यातोन्मुखी बने,लेकिन भारत का निर्यात लंबे समय से ठहराव की दशा में है। इस स्थिति में देश का कपड़ा उद्योग संपू्र्ण अर्थव्यवस्था में प्राण फूंक सकती थी। भारत में कृषि के बाद सबसे बड़ा रोजगार प्रदान करने वाला कपड़ा उद्योग लगभग 3.5 करोड़ लोगों को रोजगार प्रदान करता था,जबकि निर्यात क्षेत्र में इसकी भागीदारी 24.6फीसदी थी। इस तरह कपड़ा उद्योग न केवल निर्यातोन्मुखी अर्थव्यवस्था अपितु रोजगार देने वाले अर्थव्यवस्था के लिए भी अपरिहार्य है। मौजूदा वर्ष देश के वस्त्र निर्यात के लिए अच्छा साबित नहीं हो रहा है। क्लोथिंग मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया(सीएमआई) के आंकड़ों के अनुसार इस वित्त वर्ष अप्रैल और मई में वस्त्र निर्यात पिछले वर्ष के समान महीनों की तुलना में क्रमश: 23 और 17 प्रतिशत गिरा। सरकार इसके कमजोर प्रदर्शन के लिए यूरोप और अमेरिका में मांग में कमी को मानती है। लेकिन अगर उदाहरणों को देखा जाए तो समस्या वैश्विक बाजारों की स्थिति की नहीं है,बल्कि उसका संबंध देश के परिस्थितियों से है।


    उदाहरण के लिए जरा वियतनाम पर विचार कीजिए, जिसके वस्त्र निर्यात में इस वर्ष अब तक 14 फीसदी की वृद्धि दर्ज की जा चुकी है। पिछले वित्त वर्ष में जहां भारतीय वस्त्र निर्यात में 4 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई ,वहीं बांग्लादेश ने इसी अवधि में तैयार वस्त्रों के निर्यात के जरिए 9 फीसदी की राजस्व वृद्धि हासिल की। इसके पहले बांग्लादेश में कपड़ा एवं वस्त्र मिलों के बुनियादी ढ़ांचे में जबरदस्त सुधार किया गया ताकि उच्च सुरक्षा मानकों का पालन किया जा सके। मई 2018 में जब देश का वस्त्र निर्यात 17फीसदी गिरा तो इसी अवधि में श्रीलंका का वस्त्र निर्यात में सालाना आधार पर 9फीसदी की वृद्धि हुई। अप्रैल में जरूर उसके वस्त्र निर्यात में 4फीसदी की गिरावट आई थी, लेकिन फिर भी वह भारत की 23फीसदी गिरावट से बहुत कम थी। उद्योग जगत एवं सरकार ने कपड़ा उद्योग के घटते निर्यात के लिए अंतरराष्ट्रीय स्थितियों को जिम्मेवार माना है। लेकिन वियतनाम व बांग्लादेश के उदाहरणों से स्पष्ट है कि भारत में कपड़ा उद्योग के प्रतिस्पर्धा की ढांचागत कमी है और इसकी मांग की परिस्थितियों से कोई लेना-देना नहीं है। वियतनाम के कपड़ा उद्योग के निर्यात वृद्धि के लिए हम लोग तर्क दे सकते हैं कि आसियान के टाइगर इकॉनामी के कारण यह संभव है। लेकिन बांग्लादेश से भी भारतीय कपड़ा उद्योग का पिछड़ जाना, इसके कई गंभीर मूलभूत समस्याओं की ओर हमारा ध्यानाकर्षण कर रहा है।


    सरकार का कहना है कि अब प्रत्येक दिन देशभर में 27 किमी राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण होता है, जो पिछले सरकार से काफी ज्यादा है, ऐसे में रोजगार कम कैसे हो सकता है। यहां पर यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि अब सड़कों के निर्माण प्रक्रिया का काफी हद तक मशीनीकरण हो चुका है। ऐसे में भले ही सड़कों के निर्माण की गति तीव्र हुई है,परंतु रोजगार के अवसर नहीं बढ़े हैं। बेरोजगारी दूर करने के लिए चीन की तरह हमें भी श्रम प्रधान उद्योगों को बढ़ावा देना होगा और सरकार को कुछ ऐसा करना होगा कि ,जिससे श्रमप्रधान उद्योगों के प्रति उद्योगपतियों की भी दिलचस्पी में वृद्धि हो।


    दरअसल 2024 के लोकसभा चुनाव में मतदान से पूर्व जनता को समझना होगा कि रोजगारविहीन विकास हमें आर्थिक असमानता के गहरी खाई की ओर अग्रसर कर रही है। 10 वर्षों में सरकार को 2 करोड़ प्रति वर्ष के दर से कम से कम 20 करोड़ रोजगार देना था,परंतु इस सरकार में बेरोजगारी गंभीर समस्या बनी रही। हमें विकास को रोजगारपरक बनाना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि सरकार रोजगार प्रदान करने वाले विशिष्ट क्षेत्रों की पहचान करे तथा उसे प्राथमिकता भी प्रदान करें। उद्योग जगत की यह शिकायत भी है कि वस्तु एवं सेवा कर के आगमन के बाद से करों की मामलों में उसकी स्थिति थोड़ी कमजोर हुई है। कपड़ा और वस्त्र उद्योग के साथ दिक्कत यह भी है कि हमारी फैक्टरियां प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में निहायत छोटी है। इससे लागत बढ़ती है और छोटे ऑर्डर से निपटने या नई तरह की इन्वेट्री तैयार करने में दिक्कत होती है। आंकड़े बताते हंै कि भारतीय अर्थव्यवस्था के स्वरोजगार में खासी कमी आई है और उसके स्थानों पर दिहाड़ी मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई है।

    एक तरफ जीडीपी तेजी से बढ़ रही है,लेकिन रोजगार में वृद्धि तो दूर कमी ही दिखाई दे रही है। तो फिर ,इसे रोजगारविहीन विकास कहना अनुचित नहीं होगा। आवश्यक है कि हम लोग अपने विकास को रोजगारोन्मुखी भी बनाएं। इस संदर्भ में कांग्रेस द्वारा जारी युवा न्याय महत्वपूर्ण समाधान हो सकता है,जहां केंद्र सरकार में रिक्त 30 लाख पद भर्ती की जाएगी। युवाओं के लिए 500 करोड़ का स्टार्ट -अप कोष का गठन भी एक ऐतिहासिक कदम होगा। कांग्रेस द्वारा गिग इकॉनामी में सामाजिक सुरक्षा की बात भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। वास्तव में रोजगार सृजन मोदी सरकार के प्राथमिकता में कभी रहा ही नहीं, जिस कारण अभी देश स्वतंत्रता के बाद का सबसे भयावह बेरोजगारी दंश झेल रहा है।
    ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार व आर्थिक मामलों के जानकार हैं)

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